*पतंगों को जमीन से नफरत होती है ,क्यों कि वो हवा में ही लहराना जानती है ।
*सपने अपने होते है ,इसलिए सपने देखना बुरी बात नहीं है , बसर्ते वो टूटे न और उनका एक समय हो ।
*खुसिया बेसकीमती होती है , स्थायी नहीं होती जब तक शांति न रहे ।
*समय कीमती है ,परन्तु कार्य की वजह से , कार्य को देखो समय का पता ही नहीं चलेगा ।
*हिंसकता , और चाहत कुछ नया करने की सनक के सिवाय कुछ नहीं है ।
* भोजन के वास्तविक शौकीन लोग वही हो सकते है , जो स्वयं भोजन बना सकते हो ।
* यदि व्यक्ति अपने कर्तव्यो को पूरी निष्ठा , समर्पण, ज्ञान से कुछ एक घंटे भी निर्वहन करता है , तो वही देश के अंदर का प्रहरी है व योग्य व्यक्ति है ।
*गुजरे वक़्त , दर्द, और साल की क्या फिक्र करे ,शुक्र है , जिसके लिए हम जीते है , वह बीत गया ।
*पुरस्कारों का लोभ और चाहत रखने वाला कभी पुरस्कार हासिल नहीं कर सकता या उसे इस योग्य नहीं बनाना चाहिए ।
*सम्मान मिटता नहीं केवल उपेक्षित हो जाता है ।
*प्रतिशोध तभी उत्पन्न होता है , जब समाज के लोग हमारे लायक नहीं होते और हमारे लायक नहीं करते ।
*सृजनता में सौ साल लग सकते है पर टूटने में सेकंड भर लगते है ।
*क्रोध न कोई रोग है न इसका इलाज़ ,जब तक यह जींद न बने ।
*कला की कदर करामाती ,करिश्माई, काबिल , कारीगर कोई ही कर कमल से करता है ।
* सत्ता , शौक , शादी की कठिन कीमत चुकानी पड़ती है ।
* बनी बनायीं बाते सही होती है , बस जरुरत होती है , बदलाव और सोचने की ।
*संघर्ष जीवन का बचत खाता है ,जो ब्याज के रूप में मिलता है ।
* अच्छे कर्तव्य से बढ़कर कुछ नहीं ,धन , सम्पदा , मान , सम्मान कुछ नहीं ।
*अपमान वह घाव है ,जिस पर कोई मरहम काम नहीं करता , परन्तु ये स्वयं का कारण होता है ।
*स्वार्थी होना एक फायदे का सौदा है ।
* नेक बनो , एक बनो ।
*भ्रस्टाचार वह दीमक है , जो हरे भरे फलते फूलते वृक्ष को जड़ सहित सुखा देता है , केवल ढांचा बच जाता है , परन्तु ईर्ष्या द्वेष तो पनपने भी नहीं देना चाहता , बचो इनसे ।
*व्यक्ति की रूचि काफी हद तक चरित्र बता देती है ।
* समस्या आती है , सिखाने के लिए पर थोपी जाती है दिखाने के लिए अब क्या दिखाई दे ।
*यदि कोई आपसे जिद करे तो सबसे बेहतर होगा उसे अकेले छोड़ दे ।
* भ्रस्टाचार मुक्त देश एक पारदर्शी शीशे में जल सामान है ।
*पाप से डरो पापी से नहीं , जहा कुछ नहीं वहा रहा जा सकता है , पर जहा सबकुछ है ,पर वहा के जन सही नहीं वहा न रहना ही उचित ज्ञान योग्य होगा ।
*कर्तव्य में भावनाओ का कोई स्थान नहीं होता ।
*अच्छी से अच्छी किताबे अच्छे से अच्छे दोस्त को भी पीछे छोड़ सकती है ।
*अच्छी आशा को निराशा में लाने वाले पापी होते है ।
*देश के लिए हज़ार कठिनाईवो को सहने के बाद भी देश प्रेम - देश का प्रणाम और अमूल्य व्यक्ति होता है ।
*विचारो की स्वक्षता व्यक्ति के विश्वस्यनिता का प्रणाम पत्र है ।
*अपने बातो को बेधडक बोलो लेकिन एक बार सोचो क्या यह संभव और संगत है ।
*एक हंसी स्वयं को खुसी और स्वास्थ्य देती है , परन्तु दुसरो को हसाने वाले को प्यार और कामयाबी मिलती है ।
*सम्मान को बाँटा जाय तो ठीक है , नहीं तो सम्मान न देने वाला संदेह के योग्य , सम्मान के अयोग्य हो जाता है ।
*समय और परिस्थिति अनुसार ढलना न्यायोचित है , परन्तु समाज अनुसार ढलना हितकर है ।
*कभी कभी दोस्ती की कीमत जान होती है , आज दोस्ती जांच परख कर ही करे वरना न करे तो ही हित होगा क्यों की ये दोस्ती दलदल में फंसने जैसा होगा ।
*माफ़ करना सीखना भी एक कला सिद्धि है , इसके पश्चात सभी दुखो आतंरिक क्लेश का अंत हो जायेगा ।
*बेरोजगारी हिंसा की हितैसी व कारण है ।
*आप जो नहीं हो , अगर वही आप विनम्रता , सम्मान , प्यार , की आशा करते है , तो आप से बड़ा बेवकूफ मुर्ख दूसरा न होगा ।
*यदि हम अपनी वास्तविकता स्वीकार कर ले तो न ज्यादा पाने का लोभ दुःख होगा और न अहंकार क्यों की जो भी है , मेरा कर्म , गुण , ज्ञान, इसी योग्य है , मै ईश्वर नहीं हु उसी का निर्धारण है , और मेरी प्रतिभा यही तक है ।
*यदि आप माफ़ी नहीं दे सकते तो माफ़ी पाने मांगने का भी आपको उम्मीद नहीं होनी चाहिए , आप इस योग्य नहीं है ।
*विपदा कभी बता कर नहीं आती इसके लिए चौरस आँखों की जरुरत होती है ।
*चोरो को कोई चेहरा नहीं दीखता उनको केवल ख्वाब लत दिखता है , जिसे वो पूर्ण करना चाहते है ।
*रोष न पसंद प्रतिकार पर ही उत्पन्न होता है ।
*गलतिया हमें चेतावनी देती है , और सिखने का अवसर प्रदान करती है ।
* दुसरो के लिए जीना आना चाहिए वरना जिंदगी का विशेष महत्व नहीं रहेगा ।
*क्रोध एक प्रतिक्रियात्मक क्रिया है ।
*कार्य जल्दबाज़ी केवल औपचारिकता होती है , गड्ढे नहीं दिखते ।
*हमने क्या किया ,क्या नहीं , ये मूल्याङ्कन करना हमारा कार्य नहीं है , हमारा काम है , हमने जो किया उससे कितने चेहरों पर ख़ुशी आयी ।
* महाभारत में एकलव्य गुरु द्रोण के पास धनुर विद्या सिखने जाता है , परन्तु गुरु ने उसे छोटी जाति का कह कर उसे विद्या देने से मना कर दिया , तब एकलव्य जंगल में जाकर द्रोण गुरु की प्रतिमा बना कर उनके सामने धनुर विद्या का अभ्यास करने लगा तथा कुछ ही समय में वह गुरु के श्रेष्ठ शिष्य अर्जुन से भी बड़ा धनुर्धारी बन गया , जब उसके मान्य गुरु द्रोण ने पूछा यह कैसे ?
तो उसने कहा आप को गुरु मान मेरे निरंतर अभ्यास का यह परिणाम है ।
तब गुरु ने अपने वचन की रक्षा हेतु कि अर्जुन ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है , की लाज रखने हेतु की अगर मै तुम्हारा गुरु हु तो गुरु दक्षिणा दो , परिणाम स्वरुप उन्होंने उसका दाहिना अंगूठा मांग लिया , एकलव्य ने भी कटार से अंगूठा काट गुरु दक्षिणा स्वरुप दे दिया ,।
तब गुरु ने अपने वचन की रक्षा हेतु कि अर्जुन ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है , की लाज रखने हेतु की अगर मै तुम्हारा गुरु हु तो गुरु दक्षिणा दो , परिणाम स्वरुप उन्होंने उसका दाहिना अंगूठा मांग लिया , एकलव्य ने भी कटार से अंगूठा काट गुरु दक्षिणा स्वरुप दे दिया ,।
तब गुरु द्रोण ने कहा किसी के निरंतर लगन व अभ्यास में किसी की कोई भूमिका नहीं हो सकती ।
*महाभारत में वनवास के समय अर्जुन शिव तपस्या को चले जाते है , तपस्या के दौरान दुर्योधन का भेजा एक राक्षस सुकर का भेष बनाकर उन्हें मारने दौड़ता है , तब अर्जुन उसे अपने गांडीव धनुष से मार गिराते है , साथ ही एक और तीर उस सुकर को लगता है , अर्जुन ने देखा वह एक किरात था ,जिसका भी तीर उसे लगा था , दोनों में इस बात को लेकर युद्ध होने लगता है , कि पहले मेरा तीर लगा इसलिए ये मेरा शिकार हुआ ।
अर्जुन लाख चाहकर भी किरात को हरा नहीं पाता है । तब अर्जुन कहते है, आप कौन है , ? जिसके सामने दुनिया का सबसे बड़ा धनुर्धर भी कमजोर है ,। तब किरात बने शिव अपने वास्तविक रूप में आते है , कहते है ,तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी तुम्हारा अहंकार है , तथा अर्जुन को पाशुपास्त्र दियास्त्र देकर चले जाते है , ।
अर्जुन वहा से फिर पांडवो अपने भाईओ के पास चला जाता है , अब पांडवो को अज्ञात वास की चिंता थी , अर्जुन एक शमशान में जाकर एक वटवृक्ष पर अपने सारे दियास्त्र अस्त्र -शस्त्र एक गठरी में बाॅंधकर उस बटवृक्ष पर छिपा देता है ,तभी इंद्र देव आ जाते है , अर्जुन से कहते है , क्या इसी दिन के लिए इन्हे इंद्र लोक से जमा किया था , तुम्हारे द्वारा एकत्र किये गए ये अस्त्र -शस्त्र दिव्यास्त्रों का क्या औचित्य रह गया है ?तब अर्जुन कहता है , अपने स्वार्थ के लिए अपने धर्म को नहीं न छोड़ सकता , इंद्र चले जाते है , वहा से पांडव राजा विराट के यहाँ नौकर भेष बन अज्ञात वास बिताने लगते है ।
लेखक;- विचारक ....... रविकान्त यादव join me also on;- facebook.com/ravikantyadava
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